सोमवार, 19 जनवरी 2009

पेश है युवा कवि सुबोध की रचना

पागल होते लोग
गांव शहर में, बढती जा रही है

घोषित पागलों की संख्या

वक्त बेक्त, गली मुहल्लों से

झुंड के झुंड

निकल आते हैं ये पागल

और जुलूस में तब्दील हो

मांगने लगते हैं अपना अधिकार।
घेर लेते हैं ये, बाबुओं का दफ्तर नेताओ का काफिला

जलाते हैं शासकों का पुतला

चिल्लाते हुए से पागल

बंद कर देते हैं यातायात

कभी कभी ये उग्र पागल

जला देते हैं थाना

उखाड़ फेकते हैं पटरियां

इनके इंकलाबी नारों से

हिल उठती है सत्ता

कांपने लगता है, शासकों का कलेजा

तब शुरू होती है, बड़े बड़े अफसरों की लंबी लंबी मीटिंग.

एसी में बैठ कर, तलाशी जाती है

पागलों की जड़, जेल में बंद पागलों से

तड़पा तड़पा कर, उगलवाया जाता है राज

पर नये पागलों के जन्म लेने का

नहीं चल पाता है सुराग.
उच्चस्तरीय मीटिंग में

तब लिया जाता है निर्णय

पागलों की मांग, राष्ट विरोधी है

अंतरराष्टीय बिरादरी में

साख गिराने वाला है

इसलिए इन्हें, कुचला जाना जरूरी है.

और कर दिया जाता है

उपर से नीचे तक

प्रशासन को सतर्क

जहां कहीं भी दिखे पागल

बंद कर दो सलाखों में

भून दो गोलियों से सरेआम

देश को बचाने के लिए

जरूरी है पागलों का सफाया

पर आश्चर्य

हर कार्रवाइ के बाद

दुगुनी तिगुनी संख्या में

उठ खड़े होते हैं पागल.

--सुबोध

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दो शब्द

श्री सुबोध मुजफ्फरपुर शहर के रहने वाले हैं. हाल ही में इनकी पुस्तक दरवाजे पर दस्तक बाजार में आयी है. लोकार्पण समारोह में सुबोध ने इस कविता का पाठ किया था. उसी समय इस कविता को इस ब्लाग के माध्यम से आप तक पहुंचाने की मैंने घोषणा की थी. पढिए और प्रतिक्रिया से नवाजिए.

आपका

एम अखलाक

1 टिप्पणी:

"अर्श" ने कहा…

subodh ji ko unki pushtak ki bimochan aur is kavita ke liye dhero badhai ........


arsh