बुधवार, 21 जनवरी 2009

रंग के लिए लेख चाहिए

साथी,
मुजफ्फरपुर थियेटर एसोसिएशन कला संस्कृति पर केन्द्रित रंग पत्रिका पिछले एक साल से निकाल रहा है. नया अंक फरवरी के पहले हफ्ते में आयेगा. इसमें इस बार कलाकारों की दशा दुर्दशा पर विशेष बहस चलायेंगे. सरकार की नीतियों की करेंगे समीक्षा. यदि आपके पास कोइ जानकारी है तो हमें लिखें. आपकी बात इस अंक में हम प्रकाशित करेंगे.
पता है--.
एम अखलाक,
वरीय उपसंपादक,
दैनिक जागरण,
मुजफ्फरपुर
बिहार

सोमवार, 19 जनवरी 2009

पेश है युवा कवि सुबोध की रचना

पागल होते लोग
गांव शहर में, बढती जा रही है

घोषित पागलों की संख्या

वक्त बेक्त, गली मुहल्लों से

झुंड के झुंड

निकल आते हैं ये पागल

और जुलूस में तब्दील हो

मांगने लगते हैं अपना अधिकार।
घेर लेते हैं ये, बाबुओं का दफ्तर नेताओ का काफिला

जलाते हैं शासकों का पुतला

चिल्लाते हुए से पागल

बंद कर देते हैं यातायात

कभी कभी ये उग्र पागल

जला देते हैं थाना

उखाड़ फेकते हैं पटरियां

इनके इंकलाबी नारों से

हिल उठती है सत्ता

कांपने लगता है, शासकों का कलेजा

तब शुरू होती है, बड़े बड़े अफसरों की लंबी लंबी मीटिंग.

एसी में बैठ कर, तलाशी जाती है

पागलों की जड़, जेल में बंद पागलों से

तड़पा तड़पा कर, उगलवाया जाता है राज

पर नये पागलों के जन्म लेने का

नहीं चल पाता है सुराग.
उच्चस्तरीय मीटिंग में

तब लिया जाता है निर्णय

पागलों की मांग, राष्ट विरोधी है

अंतरराष्टीय बिरादरी में

साख गिराने वाला है

इसलिए इन्हें, कुचला जाना जरूरी है.

और कर दिया जाता है

उपर से नीचे तक

प्रशासन को सतर्क

जहां कहीं भी दिखे पागल

बंद कर दो सलाखों में

भून दो गोलियों से सरेआम

देश को बचाने के लिए

जरूरी है पागलों का सफाया

पर आश्चर्य

हर कार्रवाइ के बाद

दुगुनी तिगुनी संख्या में

उठ खड़े होते हैं पागल.

--सुबोध

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दो शब्द

श्री सुबोध मुजफ्फरपुर शहर के रहने वाले हैं. हाल ही में इनकी पुस्तक दरवाजे पर दस्तक बाजार में आयी है. लोकार्पण समारोह में सुबोध ने इस कविता का पाठ किया था. उसी समय इस कविता को इस ब्लाग के माध्यम से आप तक पहुंचाने की मैंने घोषणा की थी. पढिए और प्रतिक्रिया से नवाजिए.

आपका

एम अखलाक

नीतीश सरकार से सवाल करें

साथी, सूबे में असंगठित क्षेत्र के अनेक कलाकार जिनके जीने का जरिया मात्र कला है. इनके बारे में सरकार की कलानीति में कुछ भी प्रावधान नहीं है. सरकार कला के नाम पर जनता व कलाकार को बेवकूफ बना रही है. ऐसा कब तक चलेगा. मुजफ्फरपुर थियेटर एसोसिएशन सरकार की कलानीति के विरोध में सूबे के कलाकारों को गोलबंद कर रहा है.हम चाहते हैं कि आप भी कुछ कहें. सरकार की कलानीति को पढे. समीक्षा करें. साथियों इससे अधिक दुखद बात क्या हो सकती है कि तमाम सियासी दलों के कला संगठन इस मुद्दे पर मौन हैं. अबतक उनके द्वारा इस मुद्दे पर कोइ पहल नहीं हुई है.

शनिवार, 3 जनवरी 2009