मेरी कमज़ोरी यह है कि जब नज़रेँ फेरता हूँ तो ख़ुद से भी नफ़रत करलेता हूँ अर्थात् मैँ अपनी ज़िद के कारण घनिष्ठ मित्रता भी क्षण भर मेँ आजीवन के लिए तोड़ देता हूँ।
केवल ऐसा उसके साथ जो ग़द्दार निकल जाते।
निवेदन करता हूँ कि लौट आओ मेरी ओर अन्यथा मैँ ख़ुद से हार जाऊँगा जो कि मेरी प्रकृति है। ::::::::::::::::::::::::::
आ खुलकर खेल :-D __________________
छा गयी निशा की छटा कुसुमायुध सारा परिवेश
विवसन लतिका संग शयन यह माधुर्य स्पर्श मात्र से ये रोम- रोम जगते हैँ।
अरी ओ कामिनी खेल खुलकर आज कि तृण-तृण मेँ दाहकता अपार।
4 टिप्पणियां:
डॉ संजय जी को बहुत बधाई इस बेहद उम्दा रचना के लिए.
संजय पंकज सर की रचनातमकता का कोई सानी नहीँ।
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आ खुलकर खेल :-D
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आच्छादित निशा की छटा
कुसुमायुध सारा परिवेश
विवसन लतिका संग
शयन यह माधुर्य
स्पर्श मात्र से
ये रोम- रोम जगते हैँ।
अरी ओ कामिनी
खेल खुलकर आज
कि तृण-तृण मेँ दाहकता अपार।
'काम' अतिक्रमण नहीँ
दो हृदयोँ का आवेग एक।
(PUBLISHED)
कहफ़ रहमानी
rkahaf@gmail.com
09122026165
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मेरी कमज़ोरी यह है कि जब नज़रेँ फेरता हूँ तो ख़ुद से भी नफ़रत करलेता हूँ अर्थात् मैँ अपनी ज़िद के कारण घनिष्ठ मित्रता भी क्षण भर मेँ आजीवन के लिए तोड़ देता हूँ।
केवल ऐसा उसके साथ जो ग़द्दार निकल
जाते।
निवेदन करता हूँ कि लौट आओ मेरी ओर
अन्यथा मैँ ख़ुद से हार जाऊँगा जो कि मेरी प्रकृति है।
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आ खुलकर खेल :-D
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छा गयी निशा की छटा
कुसुमायुध सारा परिवेश
विवसन लतिका संग
शयन यह माधुर्य
स्पर्श मात्र से
ये रोम- रोम जगते हैँ।
अरी ओ कामिनी
खेल खुलकर आज
कि तृण-तृण मेँ दाहकता अपार।
'काम' अतिक्रमण नहीँ
दो हृदयोँ का आवेग एक।
published.
कहफ़ रहमानी
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