रविवार, 18 जनवरी 2009

पेश है डा संजय पंकज की ताजा रचना


4 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

डॉ संजय जी को बहुत बधाई इस बेहद उम्दा रचना के लिए.

Unknown ने कहा…

संजय पंकज सर की रचनातमकता का कोई सानी नहीँ।

Unknown ने कहा…


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आ खुलकर खेल :-D
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आच्छादित निशा की छटा
कुसुमायुध सारा परिवेश

विवसन लतिका संग
शयन यह माधुर्य
स्पर्श मात्र से
ये रोम- रोम जगते हैँ।

अरी ओ कामिनी
खेल खुलकर आज
कि तृण-तृण मेँ दाहकता अपार।

'काम' अतिक्रमण नहीँ
दो हृदयोँ का आवेग एक।

(PUBLISHED)
कहफ़ रहमानी
rkahaf@gmail.com
09122026165
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Unknown ने कहा…

मेरी कमज़ोरी यह है कि जब नज़रेँ फेरता हूँ तो ख़ुद से भी नफ़रत करलेता हूँ अर्थात् मैँ अपनी ज़िद के कारण घनिष्ठ मित्रता भी क्षण भर मेँ आजीवन के लिए तोड़ देता हूँ।

केवल ऐसा उसके साथ जो ग़द्दार निकल
जाते।


निवेदन करता हूँ कि लौट आओ मेरी ओर
अन्यथा मैँ ख़ुद से हार जाऊँगा जो कि मेरी प्रकृति है।
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आ खुलकर खेल :-D
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छा गयी निशा की छटा
कुसुमायुध सारा परिवेश

विवसन लतिका संग
शयन यह माधुर्य
स्पर्श मात्र से
ये रोम- रोम जगते हैँ।

अरी ओ कामिनी
खेल खुलकर आज
कि तृण-तृण मेँ दाहकता अपार।

'काम' अतिक्रमण नहीँ
दो हृदयोँ का आवेग एक।

published.
कहफ़ रहमानी

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