बुधवार, 10 जून 2009

बुनियादी सुविधाओं से जूझ रहे संस्कृति कर्मी

अघोषित सांस्कृतिक राजधानी मुजफ्फरपुर का संस्कृतिकर्म संकट में है। कला चेतना व कला रूझान के बावजूद कलाकारों की संवेदना नाट्य प्रस्तुतियों में आकार नहीं ले पा रही है। बुनियादी सुविधाओं के अभाव में कला प्रदर्शन टेढी खीर साबित हो रहा है। कला प्रदर्शन के लिए भवन किराये से लेकर अन्य जरूरी सामाग्रियों का खर्च वहन करना संस्थाओं के लिए पहाड़ जैसा प्रतीत होता है। इसके अलावा नाटक मंचन के लिए उपयुक्त लाइट व साउंड का शहर में उपलब्ध नहीं होना भी एक बड़ी समस्या है। सरकारी प्रयासों की बात करें तो पिछले कई दशकों से सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ाने के लिए भी कोई प्रयास नहीं किये गये। सबसे दुखद यह है कि सांस्कृतिक चेतना को जगाने वाले इस शहर में न तो कोई प्रेक्षागृह हैं और ना ही कला केन्द्र। करीब 14 साल पहले कलाकारों के आंदोलन पर जनसहयोग से बनाये गये आम्रपाली आडिटोरियम भी कलाकारों के लिए नहीं रहा। इस पर नगर निगम ने अवैध रूप से कब्जा जमा रखा है। यह इसके लिए पैसा उगाही का साधन बन गया है। पिछले दिनों मुजफ्फरपुर थियेटर एसोसिएशन के बैनर तले कलाकारों के आंदोलन किया तो डीएम की पहल पर आडिटोरियम देने का फैसला निगम बोर्ड ने लिया। कुछ नाटकों के मंचन के लिए यह मिला भी, लेकिन तमाम नियमों को ताक पर रखकर सशक्त स्थायी समिति ने इस पर रोक लगा दिया है। एसोसिएशन का कहना है कि सशक्त स्थायी समिति के अधिकारी रिश्वत की मांग कर रहे हैं। उधर, कला संस्कृति मंत्री रेणु देवी ने भी नि:शुल्क आडिटोरियम दिलाने का वादा किया था, लेकिन कागजी साबित हुआ। थियेटर एसोसिएशन के कोषाध्यक्ष सह सुप्रसिद्ध नाटय निर्देशक स्वाधीन दास वर्ष 1960 से 1985 तक शहर की नाटय कला का समृद्धि का दौर बताते हैं। वे कहते हैं कि उस अंतराल में भी सांस्कृतिक आयोजनों के लिए सरकारी स्तर पर कोई सहयोग नहीं मिला करता था। लेकिन वीणा कंसर्ट और चतुरंग नाट्य संस्थाओं के पास नाटकों के लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध थी। उस दौरान नाटकों की प्रस्तुति खूब हुआ करती थी। सुप्रसिद्ध रंगकर्मी यादवचंद्र पांडेय, सागर दास गुप्ता व बी.प्रशांत सहित कई राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित कलाकारों ने इसी शहर को अपनी कला साधना का क्षेत्र बनाया था। परंतु बदलते समय में कुछ कलाकारों के नहीं रहने व वीणा कंसर्ट के व्यवसायिक उपयोग से नाट्य प्रदर्शनों पर असर पड़ा है। श्री दास कहते हैं कि इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि कलाकार मेहनत कर नाटकों को तैयार करते हैं, परंतु प्रस्तुति की समस्या आड़े आ जाती है।

5 टिप्‍पणियां:

महेन्द्र मिश्र ने कहा…

सभी जगह बुनियादी सुविधाओं से जूझ रहे संस्कृति कर्मी है यही स्थिति चहुऔर है. बहुत ही सटीक आलेख . आभार इस समस्या को सबके सामने रखने के लिए.

Unknown ने कहा…

sthiti chinta janak hai ..........
aapne sahi swal uthaya
badhaai !

Unknown ने कहा…

चलने वालों के लिए, राहें नहीं बंद हुआ करती।

आपने यादवचंद्र का नाम लिया है सिर्फ़।
काश आप उन्हें जानते।

फिर यह रोना धोना छोडकर कहीं नाटक कर रहे होते, या गीत गा रहे होते।

उनके चेले जैसे कि लगे हुए हैं।
कोई ना कोई रास्ता निकल ही आता है।

संस्कृतिकर्म का मतलब साधन-सुविधाएं जुटाना तो शायद नहीं ही है।

अन्यथा ना लें, यादवचन्द्र बनें।

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर ने कहा…

nice one. narayan narayan

राजेंद्र माहेश्वरी ने कहा…

बहुत ही सटीक आलेख